PicsArt_10-22-06.44.23, श्रीशिवताण्डवस्तोत्रम् एक सुन्दर अनुप्रास-अलंकृत पञ्चचामर छन्द में रावणरचित स्तोत्र !
PicsArt_10-22-06.44.23, श्रीशिवताण्डवस्तोत्रम् एक सुन्दर अनुप्रास-अलंकृत पञ्चचामर छन्द में रावणरचित स्तोत्र !
Mukund Humberde
Former Director General at CG Council of science and technology


संस्कृतसाहित्य का अच्छी प्रकार से रसास्वादन करने के लिए उसका हिन्दी/मराठी में उसी छन्द में अनुवाद करना चाहिए – ऐसा विचार श्री मुकुंद हम्बर्डे जी का सदैव रहा है । 

इसी कारण उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता का समछन्द अनुवाद किया है, इसी क्रम में उन्होंने शिवताण्डव स्तोत्र का भी समछन्द हिन्दी-भाषान्तर किया है । यहां उनके द्वारा अनुवाद किया गया कुछ अंश – 

मूल – जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले । गलेsवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुङ्गमालिकाम् ।डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयम् । चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ।। १।। अनूदित – जटा-अरण्य से बहे महाजलप्रवाह से – । पवित्र जो गला वहीं विशाल सर्पमालिका । डमड् डमड् डमड्ड डम्मरू-निनाद में करे ।महेश ताण्डव प्रचण्ड, सौख्य-वृद्धि दे हमें ।। १ ।।(डम्मरू याने डमरू । इस पंचचामर छन्द में १६ अक्षरों की पंक्ति में सभी अक्षर लघु-गुरु क्रम में आते है । अर्थात् दो लघु या दो गुरु अक्षर लगातार नहीं आ सकते ।

इसीलिए डमरू को डम्मरू लिखने की विवशता रही ।) श्लोक – २ मूल  जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी । विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि । धगद्धगद्धगज्ज्वलल्लाटपट्टपावके । किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ।। अनूदित – जटाकड़ाह में सवेग घूमते जलौघ की । सुचंचला तरंग-बेल शोभनीय भाल में । धधग्धधग्भभक् रही ललाट-अग्नि, जो धरे -किशोरचन्द्र शीर्ष में, लगाव हो सदा मुझे ।।

श्लोक ३ मूल – धराधरेंद्रनंदिनीविलासबंधुबंधुर- । स्फुरद्दिगंतसंततिप्रमोदमानमानसे । कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि ।क्वचिद्दिगंबरे मनो विनोदनमेतु वस्तुनि ।। अनूदित – धराधरेंद्रनंदिनी-शिरस्थ भूषणालि से । प्रकाशमान दिगदिगंत देख के प्रसन्न जो । कृपालु दृष्टि से विपत्ति घोर दूर जो करे । दिगंबराख्य तत्त्व में रहूं प्रसन्नचित्त मैं ।।

श्लोक ४ मूल – जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा। कदम्बकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे । मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे । मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ।। अनूदित – जटा-भुजंग की फणा मणिप्रभा प्रकाशती । दिशा-युवांगना मुखाग्र  को कदंबरंग में ।मदान्ध हस्ति के सकम्प चर्म उत्तरीय से । सतैलवर्ण भूतनाथ से रखूं लगाव मैं ।।

श्लोक ५ मूल – सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर- प्रसूनधूलिधोरणीविधूसराघ्रिपीठभू: । भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटक: । श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ।। अनूदित – सुरेश्वरादि देवता-शिरस्थपुष्पधूलि से । पदद्वयस्थ पादुका हि धूसरीत हो रही । जटा-लटें निबद्ध, नागराज-हार में वहीं । चकोरबन्धु-शीर्षधारि स्थायि-श्रेय दें मुझे ।।

श्लोक ६ मूल – ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिंगभा- निपीतपंचसायकं नमन्निलिंपनायकम् । सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरम् । महाकपालि संपदे शिरो जटालमस्तु न: ।। अनूदित – ललाट-वेदि-जात-अग्नि-तेजपुंज से किया । विनाश कामदेव का, सुरेंद्र भी नमे जिसे । सुधांशु की कला सुशोभता किरीट-युक्त जो- विशाल भालयुक्तशीर्ष, सम्पदा अपार दें ।।




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