By Devendra Kumar
जागृति मंडल में यह पुस्तक मात्र तीन नग बचा हुआ था। जिसमें से दो पुस्तक किसी पाठक ने ले गए। यह पुस्तक सम्भवतः इसलिए बच गया क्योंकि इसे मैंने उसके स्थान से उठा कर अन्यत्र रख दिया था। यह मेरे ही भाग्य में था। जो मुझे मिल गया।
रायपुर से कोरबा आते समय जितना पड़ पाया वह बताने का प्रयत्न करूँगा।
आज एक बड़ी समस्या है कि हमारे यहाँ छात्र-छात्राओं को अमेरिका,जर्मन,चीन,जापान के अर्थव्यवस्था, तकनीक,विद्या और विज्ञान के विषय में जानना अच्छा लगता है और औरों को बताते हुए गौरव प्राप्ती का अनुभव होता है।
कोई बात नही जिनकी जैसी रुचि मगर हमको अपने गौरवशाली ज्ञान -विज्ञान,के विषय में भी जानना चाहिए।
इस पुस्तक के द्वारा हमको पश्चिम अर्थशास्त्र और हिन्दू अर्थशास्त्र में मूल अंतर समझ आएगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी देश के स्थिति और परिस्थिति के हिसाब से कैसा होना चाहिए। मगर इस बात को बताने वाले भारतीय विश्वविद्यालयों में प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था का अध्ययन बिल्कुल नही के बराबर है। भारतीय अर्थशास्त्री तो यह भी नही जानते या मानते की ऐसी कोई आर्थिक परंपरा,शास्त्र हमारे देश में रहा है। आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र को ही हमने प्रारंभ और अंतिम मान लिया।
जबकि वेदों में संपन्नता, धन -धान्य का प्राचुर्य तथा विभिन्न प्रकार की संपदा प्राप्ति करने का उल्लेख है। अर्जित संपदा का सदुपयोग करने का भी उपदेश है। उपनिषदों में भी इसके कण बिखरे हैं।
कक्षा दशम गुरुपूर्णिमा के समय Kailash Kailash #नाहक भैया मुझे एक श्लोक याद कराए थे। जो इस प्रकार है। #जीवने यावदा दानं,स्यात प्रतातम तते अधिकम। इत्येसा अस्माकं प्रार्थना हे!भगवन परिपुरयतां।।
ऐसा एक श्लोक ईशावास्योपनिषद का प्रथम मंत्र इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है :-
ईषावास्यमइदमसर्वम,#यत्किञ्चजगत्याम।
तेनत्यक्तेनभुंचिथामागृघ: #कस्यस्विदधनम।।
इस मंत्र का भाव यह है कि त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए,लालच नही करना चाहिए। यह सम्पूर्ण प्राकृतिक संपदा तुम्हारी नही है,यह ईश्वर का निवास है अतः यह सबकी है।
धन का इस मंत्र में व्यापकता है केवल पूंजी,रुपिया मात्र नही है।
अर्थ चिंतन के इस प्राचीन मंत्र से ऋषि यह कहते हैं कि मन में त्याग की भावना होनी चाहिए अर्थात एक दूसरे के प्रति आदान प्रदान की भावना होनी चाहिए।आपस में बांट कर खाओ। अमर्यादित उपभोग भी वर्जित है। प्रकृति से यदि हम कुछ ले रहे हैं तो उसे कुछ देना होगा। प्रकृति का भंडार खाली नही होना चाहिए। प्रकृति का दोहन तो हम करें लेकिन शोषण कभी नही करना चाहिए।
हमने प्रकृति को माँ की संज्ञा दी है। आठ माँ का दुग्धपान किया जाता है रक्तपान नही किया जाता है। \
लालच नही करना चाहिए अर्थात जितना तुमको आवश्यक उतना तुम्हारे पास होना चाहिए। धन का प्रवाह बनाये रखना आवश्यक है।
ऐसे बहुत से बातें हैं जो इस पुस्तक के माध्यम से आप समझ सकते हो। भारत के प्रति हिन्दू चिंतन अत्यंत विशाल और गहन है।