PicsArt_10-17-01.17.56, मध्यकालीन संत काव्य में सामाजिक समरसता - शोधार्थी शालीन साहू
PicsArt_10-17-01.17.56, मध्यकालीन संत काव्य में सामाजिक समरसता - शोधार्थी शालीन साहू

भारत के राष्ट्र जीवन का आधार सदा अध्यात्मिकता रहा हैं। सर्वजन में एक ही तत्व को देखने वाली यह संस्कृति विश्व में बेजोड़ हैं। ‘माता भूमिः पुत्रोऽहमं पृथिव्याः’, धरतीमाता और हम सब उसके पुत्र हैं अर्थात् सारे विश्व के लोग हमारे भाई हैं – यह घोष यहाँ हुआ। परिणामतः ऊँच- नीच का भाव नहीं रहा। सामाज – विकास में हरेक का अपना महत्व हैं, उसका ध्यान रखा गया। इसी विश्वास के आधार पर यहाँ युगानुकूल सामाज – रचना का विकास हुआ।
हमारे वैदिक ऋषियों ने सभी प्राणियों में ईश्वरीय चेतधा की समान अनुभूति की और सभी जीवों में एक अविनाशी ईश्वर तत्व को देखा। ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मंत्र तथा यजुर्वेद में वैदिक ऋषियों ने इसी तथ्य को निरूपित करते हुए लिखा –
ईशा वास्यमिंद सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।
अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर से व्याप्त हैं। ईश्वर को साथ रखते हुए त्याग – पुर्वक इसका उपभोग करो; इसमें आसक्त मत होओ; धन – भोग्य पदार्थ किसका हैं? अर्थात् किसी का भी नहीं हैं।’ भारतीय दर्शन के इस एक मन्त्र की प्रथम पंक्ति ने ही मानवीय समाज-रचना के ताने बाने की आधारशिला रख दी। वैदिक गुरू अपने शिष्यों को समझाते हैं कि इस जगत में सर्वत्र व्याप्त उस ईश्वर रूपी परमतत्व को अनुभव करो।सभी मानवों के अन्दर, सभी जीवों के अन्दर, वनस्पतियों में, जड़ – चेतन में, ईश्वर की परम सत्ता का अनुभव करो।
इस श्लोक की व्याख्या में महात्मा गांधी ने लिखा था : “I derive form it the doctrine of equality of all creatures on earth and it should satisfy the cravings of all philosophical communists यानि इससे सभी प्राणियों की समता का सिद्धांत प्रतिपादित होता है और इससे सभी दार्शनिक साम्यवादियों को संतुष्टि मिलनी चाहिए।”1
हम देखते हैं कि भारतीय ऋषियों द्वारा प्राणी मात्र में जिस सद्भावना का विचार किया गया था। उसे लेकर भारतीय जीवन अनेक धार्मिक विश्वास एवं सैकड़ों प्रकार के रीति – रिवाज आपस में मिल-जुलकर रगड़ खाते एक ही धारा में चलती रही। सभी एक दुसरे के नुकीले कोनों की असहजता और कठोरता को छाँटते हुए उसे एक सुघढ़ – सुखद-सरल रूप में सहज ही बदलते रहे। सभी एक दुसरे के प्रति सम्मान और सहिष्णुता को “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ” के भाव से स्वीकार कर अनेक प्रकार के अनमेल धार्मिक विश्वासों तथा कभी – कभी विरोधाभासों में भी अन्तर्निहित भावमयी एकता को सहजता से ढुँढ़ निकलते रहे। वास्तव में यह सारा कुछ भारतीय सामाज में एकात्म भाव और सामाजिक समरसता के रूप में जीवन का सहज अंग बन गया।
किंतु भारतीय जीवन में एक काल ऐसा आया जब भारतीय उपमहाद्वीप पर इस्लाम के कट्टर अनुयायियों का आक्रमण हुआ और भारत की सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था में उथल-पुथल हो गयी।काल-प्रवाह में हमारी एकात्म भावना, सामाजिक समरसता में आततायियों के प्रहारों की धुल जम गयी। तब भारतीय संत परम्परा ने पुनः इसे जीवतं करने का कार्य किया काल के प्रवाह में उत्पन्न मनुष्य – मनुष्य के मध्य भेदभाव को मिटा कर समरस सामाज स्थापना का प्रयास किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – “इस्लाम के प्रवेश ने धर्मगत एवं समाज व्यवस्था को पुरी तरह से झकझोर दिया था। उस समय भक्त कवियों की भक्ति ने दो रूपों में आत्म प्रकाश किया। एक सगुण साधना, दुसरी निर्गुण साधना। पहली साधना ने हिन्दू जातिकी बाह्याचार एवं शुष्कता को आन्तरिक प्रेम में सींचकर रसमय बनाया और दूसरी साधना ने बाह्याचार की शुष्कता को दूर करने का प्रयत्न किया।2
संत कवियों ने जन – जन में छुपे एकात्म भाव को जगाने का प्रयास किया। लोक साहित्य की रचना की। सन्त साहित्य का उद्देश्य “लोक” में फैले अविश्वास, अनास्था एवं कुरीतियों को दुर करना था। “सन्तों ने धर्म का जो भाव रखा वह मानवीय था उन्होंने धार्मिक पहलुओं के अध्ययन करने के साथ ही साथ सांस्कृतिक, सामाजिक एवं लौकिक स्थिति का भी आंकलन किया उन्होंने यह अनुभव किया कई भारतीय सामाजिक जीवन संक्रमण के काल से गुजर रहा था। भारतीय जीवन अपनी लम्बी यात्रा और बाहर से आये आतातायी के प्रभाव कै कारण अस्त – व्यस्त हो गया हैं। हिंदी साहित्य के वृहद इतिहास में इसका वर्णन करते हूए लिखा हैं :
“अनेक प्रकार के सामाजिक तथा राजनीतिक परिवर्तन के कारण सामाज में विघटन और विभाजन ने जोर पकड़ा। इसी से जातियों और उपजातियोंय की संख्या में वृद्धि हो गई। एक समय ऐसा था जब वर्ण व्यवस्था ने सैकड़ों जातियों तथा वर्गों को सामाजिक आदर्श और कार्यव्यवस्था के अन्तर्गत संगठित किया था। अब, वर्ण स्वयं जातियों में बदलता जा रहा था। उदाहरण : “ब्राम्हण मध्ययुग में पहली बार दस शाखाओं पंच गौड़ तथा पंच द्रविड़ में बँटे। इनमें क्रमांशः विवाह सम्बन्ध और भोजनादि भी परस्पर बंद हो गए। क्षत्रिय वर्णगत न रहकर वंशगत और जाति बन गए। अपने वंश और स्थानीय राज्य के लिए युध्द करना ही उनका कर्त्तव्य रह गया। वैश्यों और शुद्रों में तो अनगिनत जातियाँ फिर उत्पन्न हो गई जो परस्पर वर्जनशील और संकीर्ण थी। “3
ऐसे वातावरण में संतो ने मानवीय भावनाओं को उजागर करने का क्या किया। भारतीय जीवन में निहित सद्भावना, समरसता को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया।यहां कुछ प्रमूख संतो के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा हम करेंगे
कबीर – संत कबीरदास ने जन्म से ऊँच – नीच माने जाने वाली परम्परा पर प्रहार किया और इसका उपहास भी उड़ाया। सभी मनुष्यों के जन्म की विधी एक ही हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण के क्यों न हों। मानव शरीर त्वचा, अस्थि, माँस – मज्जा, मल – मूत्र आदी एक सदृश हैं। एक ही रक्त एवं शरीर के अंग सब एक ही समान हैं। एक ही बूँद से समस्त मानव सृष्टि की गई हैं, फिर ब्राह्मण और शुद्र का अंतर कैसा?
एकै त्वचा हाड़ मल मूत्रा, एक रिधुर एक गूदा।
एक बूँद सों स्त्रिस्टि रची हैं, को बाम्हन को सूदा।।4
संत रैदास – संत रैदास एक चर्मकार परिवार में जन्म लिए थे। अपनी आध्यात्मिक – साधना, चरित्रबल तथा विनयशील स्वभाव के कारण लाखों लोग, उनके जीवनकाल में ही उनके शिष्य हो गए। उन्होंने ईश्वरभक्ति का व्यापक साहित्य लिखा, किंतु अपने परिवारिक कार्य को लेकर कोई ग्लानि नहीं थी। वे लिखते हैं
जांति एक जामें एकहि चिन्हा, देह अवयव कोई नहीं भिन्ना।
कर्म प्रधान ऋषि – मुनि गावें, यथा कर्म फल तैसहि पावें।
जीव कै जाति बर्न कुल नाहीं, जाति भेद हैं जग मूरखाईं।
नीति-स्मृति – शास्त्र सब गावें, जाति भेद शठ मूढ़ बताएं।5
अर्थात् ‘जीव की कोई जाति नहीं होती, न वर्ण, न कुल। ऋषि – मुनियों ने वर्ण को कर्म प्रधान बताया है, शास्त्र भी यही कहते हैं। जाति भेद की बात, मुढ़ और शठ करते हैं। वास्तव में सबकी जाति एक ही हैं।’
सूरदास – सूरदास की भक्ति पद्धति में ऊँच – नीच का भेद नहीं हैं। उनका मानना हैं कि भगवान् के दरबार में जाति नहीं पूछी जाती :
जाति – पाति कोई पूछत नाहीं श्री पति के दरबार।6
स्वयं श्री वल्लभाचार्य तथा भक्ति मार्ग के अन्य आचार्यों ने भी इनमें ऊँच-नीच का भेद नहीं माना। भक्त सूरदास ने ईश्वरभक्ति में कोई भेद मानने से स्पष्ट मना कर दिया। ‘सूरसागर के प्रथम स्कंथ में वे कहते हैं:
जाति पांति कुल-कानि न मानत, वेद पुराननि साखै
गोस्वामी तुलसीदास – गोस्वामी तुलसीदास ने उस समय व्याप्त सामाजिक विषमता से संघर्ष किया। उन्होंने बड़ी कुशलता से, सामाज में नीचे खड़े उपेक्षित निम्न वर्गीय व्यक्ति को सामाज में सर्वोच्च व्यक्ति द्वारा प्रेमपूर्वक सम्मानित करवाया तथा सामाजिक समरसता का संदेश दिया रामचरित मानस में शबरी कहती हैं कि मैं तो अधम जाति की मन्द बुद्धि नारी हूँ, मैं आपकी स्तुति कैसे करूँ? प्रभु राम बोले :
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल वारिद देखिअ जैसा।
अर्थात् ‘प्रभु राम बोले, शबरी सुनो! मैं तो केवल एक भक्ति का नाता ही जानता हूँ। ऊँची जाति – पाँति, धन, परिवार, चतुराई आदि मेरे लिए कोई महत्व नहीं रखते। ऊँचे कुल या ऊँची जाति वाला या धनवान व्यक्ति यदि भक्तिहीन हैं तो वह उसी प्रकार शोभाहीन है जिस प्रकार जलहीन मेघ।
संत नामदेव- संत नामदेव छीपी या दर्जी जाति के थे। इन्होंने भी अन्य संतो की भांति सभी प्राणियों के अंदर एक ही आत्मा का दर्शन किया और सामाज में जाति – पाँति से ऊपर उठ समरस सामाज निर्माण की प्रेरणा दी वे कहते हैं :
सर्वभूतों में हरि यही एक सत्य। सर्व नारायण देखते हरि।।
अर्थात ‘सभी जीवों में ईश्वर ही सत्य हैं। प्रभु सभी को देख रहे हैं।
गुरूनानक देव- श्री गुरू नानकदेव ब्रह्म की सर्ववयापकता को स्वीकार करने वाले समतावादी संत थे तथा सदैव जाति – व्यवस्था के विरोधी रहे। जातिगत भेदभाव का विचार किए बिना वे अपने शिष्य बनाते थे। श्री गुरु नानक देव कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति महान् हैं, किसे नीचा अथवा पतित कहूँ? वे कहते हैं :
जाणहु जोति न पुछहु जाती आगै जाति न हे।7
अर्थात् ‘ईश्वर के तेज तथा प्रकाश का सभी व्यक्तियों में अनुभव करो, किसी से भी उनकी जाति न पुछो, क्योंकि बाद में अर्थात् परलोक में जाति नहीं रहेगी।।
इस प्रकार हम हम कह सकते हैं कि मध्यकालीन लोक स्थिति दिग्भ्रमित थी। इस काल में धर्म, सामाजिक व्यवस्था, सांस्कृतिक, राजनैतिक व्यवस्था लुन्ज पुन्ज थी। कर्मकाण्ड का बोलवाला होने से लोक में आराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। मध्यकालीन धर्म का विषय ज्ञान का नहीं बल्कि भावावेश का हो गया था। ऐसे समय में मध्यकालीन संत काव्य धारा भारत के प्रचीन जीवन में व्याप्त सामाजिक समरसता को पुनः अपने कृतित्व और व्यक्तित्त्व के माध्यम से जीवंत करने का प्रयास करती हैं। सभी संत कवियों का काव्य मानव मात्र के एकत्व के मूल सिद्धांत से अनुप्राणित हैं। सभी संत अपने मन – वचन – कर्म से भारतीय सामाज को समता ममता एकता से सूत्र में बांधकर समरस समाज निर्माण की व्यापक चेष्टा करते दिखाई देते हैं।

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